Sunday, October 21, 2012

दुर्गा सप्तशती के सिद्ध चमत्कारी मंत्र


मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्माजी ने मनुष्यों के रक्षार्थ परमगोपनीय साधन, कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों को बताया, जो देवी की नौ मूर्तियां-स्वरूप हैं, जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता है, उनकी आराधना आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक की जाती है।

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मनोरथ सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि श्री दुर्गा सप्तशती दैत्यों के संहार की शौर्य गाथा से अधिक कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी हैं। यह श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी महात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्रोत एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है।

* सर्वकल्याण हेतु -
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्येत्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुऽते॥

* बाधा मुक्ति एवं धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिए इस मंत्र का जाप फलदायी है-
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वितः।
मनुष्यों मत्प्रसादेन भव‍िष्यंति न संशय॥

* आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्ति के चमत्कारिक फल देने वाले मंत्र को स्वयं देवी दुर्गा ने देवताओं को दिया है-
देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

* विपत्ति नाश के लिए-
शरणागतर्द‍िनार्त परित्राण पारायणे।
सर्व स्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽतुते॥

* ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, संपदा प्राप्ति एवं शत्रु भय मुक्ति के लिए-
ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पदः।
शत्रु हानि परो मोक्षः स्तुयते सान किं जनै॥

* विघ्ननाशक मंत्र-
सर्वबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरी।
एवमेव त्याया कार्य मस्माद्वैरि विनाशनम्‌॥

जाप विधि- नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन घटस्थापना के बाद संकल्प लेकर प्रातः स्नान करके दुर्गा की मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से गंध, पुष्प, धूप दीपक नैवेद्य निवेदित कर पूजा करें। मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें।

शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष या तुलसी या चंदन की माला से मंत्र का जाप एक माला से पांच माला तक पूर्ण कर अपना मनोरथ कहें। पूरी नवरात्रि जाप करने से वांच्छित मनोकामना अवश्य पूरी होती है। समयाभाव में केवल दस बार मंत्र का जाप निरंतर प्रतिदिन करने पर भी मां दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं।

Sunday, October 14, 2012

सती माता कैसे बन गई शक्ति?

प्रजापति दक्ष की पुत्री सती को शैलपुत्री भी कहा जाता था और उसे आर्यों की रानी भी कहा जाता था। दक्ष का राज्य हिमालय के कश्मीर इलाके में था। यह देवी ऋषि कश्यप के साथ मिलकर असुरों का संहार करती थी।

मां सती ने एक दिन कैलाशवासी शिव के दर्शन किए और वह उनके प्रेम में पड़ गई। एक तरफ आर्य थे तो दूसरी तरफ अनार्य। लेकिन सती ने प्रजापति दक्ष की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह कर लिया। दक्ष इस विवाह से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि सती ने अपनी मर्जी से एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया था जिसकी वेशभूषा और शक्ल दक्ष को कतई पसंद नहीं थी।

सती के शरीर का जो हिस्सा और धारण किए आभूषण जहां-जहां गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आ गए। देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का जिक्र है, तो देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र मिलता है। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों की चर्चा की गई है। वर्तमान में भी 51 शक्तिपीठ ही पाए जाते हैं, लेकिन कुछ शक्तिपीठों का पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में होने के कारण उनका अस्तित्व खतरें में है।

सती ही है शक्ति : शक्ति से सृजन होता है और शक्ति से ही विध्वंस। वेद कहते हैं शक्ति से ही यह ब्रह्मांड चलायमान है। ...शरीर या मन में यदि शक्ति नहीं है तो शरीर और मन का क्या उपयोग। शक्ति के बल पर ही हम संसार में विद्यमान हैं। शक्ति ही ब्रह्मांड की ऊर्जा है। 

मां पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। वेद, उपनिषद और गीता में शक्ति को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति कहने से अर्थ वह प्रकृति नहीं हो जाती। हर मां प्रकृति है। जहां भी सृजन की शक्ति है वहां प्रकृति ही मानी गई है। इसीलिए मां को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति में ही जन्म देने की शक्ति है।

अनादिकाल की परंपरा ने मां के रूप और उनके जीवन रहस्य को बहुत ही विरोधाभासिक बना दिया है। वेदों में ब्रह्मांड की शक्ति को चिद् या प्रकृति कहा गया है। गीता में इसे परा कहा गया है। इसी तरह प्रत्येक ग्रंथों में इस शक्ति को अलग-अलग नाम दिया गया है, लेकिन इसका शिव की अर्धांगिनी माता पार्वती से कोई संबंध नहीं।

इस समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त है सिद्धियां और शक्तियां। स्वयं हमारे भीतर भी कई तरह की शक्तियां है। ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, मन:शक्ति और क्रियाशक्ति आदि। अनंत है शक्तियां। वेद में इसे चित्त शक्ति कहा गया है। जिससे ब्रह्मांड का जन्म होता है। यह शक्ति सभी के भीतर होती है।

शाक्त धर्म का उद्‍येश्य : शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है। शक्ति ही धर्म है। शक्ति ही सत्य है। शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति ही हम सभी की आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त सम्प्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं।
- अनिरुद्ध

Tuesday, October 9, 2012

ध्यान



'भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है।'
ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, साक्ष‍ी भाव और दृष्टा भाव।

योग का आठवां अंग ध्यान अति महत्वपूर्ण हैं। एक मात्र ध्यान ही ऐसा तत्व है कि उसे साधने से सभी स्वत: ही सधने लगते हैं, लेकिन योग के अन्य अंगों पर यह नियम लागू नहीं होता। ध्यान दो दुनिया के बीच खड़े होने की स्थिति है।

ध्यान की परिभाषा : तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।। 3-2 ।।-योगसूत्र अर्थात- जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है।

ध्यान का अर्थ : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।

क्रिया नहीं है ध्यान : बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रिया, भावातीत ध्यान और सहज योग ध्यान। दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है।

बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है।

आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति।
ध्यान का स्वरूप : हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है। हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है। आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।

ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।

ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।

मृत्यु आए उससे पहले पूर्णिमा का चांद निकले उस मुकाम तक ले जाओ अपने होश को।

मूलत: ध्यान को चार भागों में बांटा जा सकता है-
1. देखना,
2. सुनना,
3. श्वास लेना और
4. आंखें बंदकर मौन होकर सोच पर ध्‍यान देना।
देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान, सुनने को श्रवण ध्यान, श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान और आंखें बंदकर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं।

उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं। उक्त तरीकों को में ही ढलकर योग और हिन्दू धर्म में ध्यान के हजारों प्रकार बताएं गए हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार हैं। भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं।

देखना : ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है।

सुनना : सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर।

श्वास पर ध्यान : बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथासंभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहे। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है।

भृकुटी ध्यान : आंखें बंद करके दोनों भोओं के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना। होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यान है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली।

अब हम ध्यान के पारंपरिक प्रकार की बात करते हैं। यह ध्यान तीन प्रकार का होता है-
1. स्थूल ध्यान,
2. ज्योतिर्ध्यान और
3. सूक्ष्म ध्यान।

1. स्थूल ध्यान- स्थूल चीजों के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते हैं- जैसे सिद्धासन में बैठकर आंख बंदकर किसी देवता, मूर्ति, प्रकृति या शरीर के भीतर स्थित हृदय चक्र पर ध्यान देना ही स्थूल ध्यान है। इस ध्यान में कल्पना का महत्व है।

2. ज्योतिर्ध्यान- मूलाधार और लिंगमूल के मध्य स्थान में कुंडलिनी सर्पाकार में स्थित है। इस स्थान पर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्ध्यान है।

3. सूक्ष्म ध्यान- साधक सांभवी मुद्रा का अनुष्ठान करते हुए कुंडलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।

ध्यान की विधियां

ध्यान करने की अनेकों विधियों में एक विधि यह है कि ध्यान किसी भी विधि से किया नहीं जाता, हो जाता है। ध्यान की योग और तंत्र में हजारों विधियां बताई गई है। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा साधु संगतों में अनेक विधि और क्रियाओं का प्रचलन है। विधि और क्रियाएं आपकी शारीरिक और मानसिक तंद्रा को तोड़ने के लिए है जिससे की आप ध्यानपूर्ण हो जाएं। यहां प्रस्तुत है ध्यान की सरलतम विधियां, लेकिन चमत्कारिक।

विशेष : ध्‍यान की हजारों विधियां हैं। भगवान शंकर ने माँ पार्वती को 112 विधियां बताई थी जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं। इसके अलावा वेद, पुराण और उपनिषदों में ढेरों विधियां है। संत, महात्मा विधियां बताते रहते हैं। उनमें से खासकर 'ओशो रजनीश' ने अपने प्रवचनों में ध्यान की 150 से ज्यादा विधियों का वर्णन किया है।

1- सिद्धासन में बैठकर सर्वप्रथम भीतर की वायु को श्वासों के द्वारा गहराई से बाहर निकाले। अर्थात रेचक करें। फिर कुछ समय के लिए आंखें बंदकर केवल श्वासों को गहरा-गहरा लें और छोड़ें। इस प्रक्रिया में शरीर की दूषित वायु बाहर निकलकर मस्तिष्‍क शांत और तन-मन प्रफुल्लित हो जाएगा। ऐसा प्रतिदिन करते रहने से ध्‍यान जाग्रत होने लगेगा।

2- सिद्धासन में आंखे बंद करके बैठ जाएं। फिर अपने शरीर और मन पर से तनाव हटा दें अर्थात उसे ढीला छोड़ दें। चेहरे पर से भी तनाव हटा दें। बिल्कुल शांत भाव को महसूस करें। महसूस करें कि आपका संपूर्ण शरीर और मन पूरी तरह शांत हो रहा है। नाखून से सिर तक सभी अंग शिथिल हो गए हैं। इस अवस्था में 10 मिनट तक रहें। यह काफी है साक्षी भाव को जानने के लिए।

3- किसी भी सुखासन में आंखें बंदकर शांत व स्थिर होकर बैठ जाएं। फिर बारी-बारी से अपने शरीर के पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक अवलोकन करें। इस दौरान महसूस करते जाएं कि आप जिस-जिस अंग का अलोकन कर रहे हैं वह अंग स्वस्थ व सुंदर होता जा रहा है। यह है सेहत का रहस्य। शरीर और मन को तैयार करें ध्यान के लिए।

4. चौथी विधि क्रांतिकारी विधि है जिसका इस्तेमाल अधिक से अधिक लोग करते आएं हैं। इस विधि को कहते हैं साक्षी भाव या दृष्टा भाव में रहना। अर्थात देखना ही सबकुछ हो। देखने के दौरान सोचना बिल्कुल नहीं। यह ध्यान विधि आप कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं। सड़क पर चलते हुए इसका प्रयोग अच्छे से किया जा सकता है।

देखें और महसूस करें कि आपके मस्तिष्क में 'विचार और भाव' किसी छत्ते पर भिनभिना रही मधुमक्खी की तरह हैं जिन्हें हटाकर 'मधु' का मजा लिया जा सकता है।

उपरोक्त तीनों ही तरह की सरलतम ध्यान विधियों के दौरान वातावरण को सुगंध और संगीत से तरोताजा और आध्यात्मिक बनाएं। चौथी तरह की विधि के लिए सुबह और शाम के सुहाने वातावरण का उपयोग करें।

ध्यान का स्थान

यदि आप सच में ही ध्यान के प्रति गंभीर है और आप बैठकर ध्यान करना चाहते हैं तो आपके लिए जरूरी है कि आप अच्छा सा स्थान चयन करें। ध्यान करने हेतु शुरुआत में स्थान की जरूरत तो होती ही है। वैसे ध्यान करने का स्थान तो मंदिर होता है। मंदिर इसलिए बनाए गए थे कि लोग वहां जाकर ध्‍यान करें, , लेकिन चूंकि अब मंदिरों में पूजा, पाठ और भजन होते हैं इसलिए वहां ध्यान नहीं कर सकते। प्राचीन मंदिरों की बनावट ही ध्यान के अनुसार हुई थी।

ध्यान करने का स्थान ऐसा हो जहां शोरगुल और ‍प्रदूषण न हो। स्थान साफ-सुथरा और सामान्य तापमान वाला हो। आप कानों में रुई लगाकर भी शोरगुल से बच सकते हैं। मच्छरदानी लगाकर मच्छरों से बच सकते हैं, लेकिन यदि हवा में प्रदूषण है तो कैसे बचेंगे यह तय करें।

गर्मी से त्रस्त व्यक्ति को जैसे एक पेड़ की छांव या शीतल कुटिया का आश्रय राहत देता है, उसी प्रकार सांसारिक झंझटों से पीड़ित व त्रस्त वैरागी के लिए हठयोग और सांसारिकों के लिए एकांत आश्रय माना है।

क्या आप साधना करना चाहते हैं?

तब जहां तक संभव हो शहर के शोरगुल से दूर प्राकृतिक संपदा से भरपूर ऐसे माहौल में रहें, जहां धार्मिक मनोवृत्ति वाले लोग हों और वहां अन्न, जल, फल, मूल आदि से परिपूर्ण व्यवस्था हो। यही आपकी उचित साधनास्थली है। इस तरह के एकांत स्थान का चयन कर वहां एक छोटी-सी कुटिया का निर्माण करें।

कैसी हो कुटिया : ध्यान रखें कि कुटिया के चारों ओर पत्थर, अग्नि या जल न हो। उसके लिए अलग स्थान नियु‍क्त करें। कुटी का द्वार छोटा हो, दीवारों में कहीं तीड़ या छेद न हो, जमीन में कहीं बिल न हो जिससे चूहे या सांप आदि का खतरा बढ़े। कुटिया की जमीन समतल हो, गोबर से भली प्रकार लिपी-पुती हो, कुटिया को अत्यंत पवित्र रखें अर्थात वहां कीड़े-मकोड़े नहीं हों।

कुटिया के बाहर एक छोटा-सा मंडप बनाएं जिसके नीचे हवन करने के लिए उसमें वेदी हो जहां चाहें तो धूना जलाकर रख सकते हैं। यह सर्दियों में बहुत काम आएगा। पास में ही एक अच्छा कुआं या कुंडी हो, जिसकी पाल दीवारों से घिरी हो। कुआं नहीं हो तो इस बात का ध्यान रखें क‍ि आपको पानी लाने के लिए किसी प्रकार की मेहनत न करना पड़े और पानी साफ-सुथरा हो।

अंतत:- अतः जो साधक जिस प्रकार के स्थान में रहता हो, वहाँ भी यथासंभव एकांत प्राप्त कर अभ्यास में सफलता प्राप्त कर सकता है, परंतु हठयोगियों का अनुभव है कि पवित्र वातावरण ही साधना को आगे बढ़ाने और शीघ्र सफलता प्राप्त कराने में काफी अधिक सहायक सिद्ध होता है।

ध्‍यान का लाभ

हम ध्यान है। सोचो की हम क्या है- आंख? कान? नाक? संपूर्ण शरीर? मन या मस्तिष्क? नहीं हम इनमें से कुछ भी नहीं। ध्यान हमारे तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है। स्वयं को पाना है तो ध्यान जरूरी है। वहीं एकमात्र विकल्प है।

आत्मा को जानना : ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती है। आत्मिक शक्ति से मानसिक शांति की अनुभूति होती है। मानसिक शांति से शरीर स्वस्थ अनुभव करता है। ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केंद्रित होती है। उर्जा केंद्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल मिलता है।

ध्यान से विजन पॉवर बढ़ता है तथा व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है। ध्यान से सभी तरह के रोग और शोक मिट जाते हैं। ध्यान से हमारा तन, मन और मस्तिष्क पूर्णत: शांति, स्वास्थ्य और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

क्या होगा ध्यान से : हर तरह का भय जाता रहेगा। चिंता और चिंतन से उपजे रोगों का खात्मा होगा। शरीर में शांति होगी तो स्वस्थ अनुभव करेंगे। कार्य और व्यवहार में सुधार होगा। रिश्तों में तनाव की जगह प्रेम होगा। दृष्टिकोण सकारात्मक होगा। सफलता के बारे में सोचने मात्र से ही सफलता आपके नजदीक आने लगेगी।

ध्यान का महत्व : ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। शुद्ध रूप से देखने की क्षमता बढ़ने से विवेक जाग्रत होगा। विवेक के जाग्रत होने से होश बढ़ेगा। होश के बढ़ने से मृत्यु काल में देह के छूटने का बोध रहेगा। देह के छूटने के बाद जन्म आपकी मुट्‍ठी में होगा। यही है ध्यान का महत्व।

सिर्फ तुम : खुद तक पहुंचने का एक मात्र मार्ग ध्‍यान ही है। ध्यान को छोड़कर बाकी सारे उपाय प्रपंच मात्र है। यदि आप ध्यान नहीं करते हैं तो आप स्वयं को पाने से चूक रहे हैं। स्वयं को पाने का अर्थ है कि हमारे होश पर भावना और विचारों के जो बादल हैं उन्हें पूरी तरह से हटा देना और निर्मल तथा शुद्ध हो जाना।

ज्ञानीजन कहते हैं कि जिंदगी में सब कुछ पा लेने की लिस्ट में सबमें ऊपर स्वयं को रखो। मत चूको स्वयं को। 70 साल सत्तर सेकंड की तरह बीत जाते हैं। योग का लक्ष्य यह है कि किस तरह वह तुम्हारी तंद्रा को तोड़ दे इसीलिए यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार और धारणा को ध्यान तक पहुँचने की सीढ़ी बनाया है।

ध्यान के लाभ:

ध्यान से मानसिक ला- शोर और प्रदूषण के माहौल के चलते व्यक्ति निरर्थक ही तनाव और मानसिक थकान का अनुभव करता रहता है। ध्यान से तनाव के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। निरंतर ध्यान करते रहने से जहां मस्तिष्क को नई उर्जा प्राप्त होती है वहीं वह विश्राम में रहकर थकानमुक्त अनुभव करता है। गहरी से गहरी नींद से भी अधिक लाभदायक होता है ध्यान।

विशेष : आपकी चिंताएं कम हो जाती हैं। आपकी समस्याएं छोटी हो जाती हैं। ध्यान से आपकी चेतना को लाभ मिलता है। ध्यान से आपके भीतर सामंजस्यता बढ़ती है। जब भी आप भावनात्मक रूप से अस्थिर और परेशान हो जाते हैं, तो ध्यान आपको भीतर से स्वच्छ, निर्मल और शांत करते हुए हिम्मत और हौसला बढ़ाता है।

ध्यान से शरीर को मिलता ला- ध्यान से जहां शुरुआत में मन और मस्तिष्क को विश्राम और नई उर्जा मिलती है वहीं शरीर इस ऊर्जा से स्वयं को लाभांवित कर लेता है। ध्यान करने से शरीर की प्रत्येक कोशिका के भीतर प्राण शक्ति का संचार होता है। शरीर में प्राण शक्ति बढ़ने से आप स्वस्थ अनुभव महसूस करते हैं।

विशेष : ध्यान से उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है। सिरदर्द दूर होता है। शरीर में प्रतिरक्षण क्षमता का विकास होता है, जोकि किसी भी प्रकार की बीमारी से लड़ने में महत्वपूर्ण है। ध्यान से शरीर में स्थिरता बढ़ती है। यह स्थिरता शरीर को मजबूत करती है।

आध्यात्मिक ला- जो व्यक्ति ध्यान करना शुरू करते हैं, वह शांत होने लगते हैं। यह शांति ही मन और शरीर को मजबूती प्रदान करती है। ध्यान आपके होश पर से भावना और विचारों के बादल को हटाकर शुद्ध रूप से आपको वर्तमान में खड़ा कर देता है। ध्यान से काम, क्रोध, मद, लोभ और आसक्ति आदि सभी विकार समाप्त हो जाते हैं। निरंतर साक्षी भाव में रहने से जहां सिद्धियों का जन्म होता है वहीं सिद्धियों में नहीं उलझने वाला व्यक्ति समाधी को प्राप्त लेता है।

कैसे उठाएं ध्यान से लाभ : ध्यान से भरपूर लाभ प्राप्त करने के लिए नियमित अभ्यास करना आवश्यक है। ध्यान करने में ज्यादा समय की जरूरत नहीं मात्र पांच मिनट का ध्यान आपको भरपूर लाभ दे सकता है बशर्ते की आप नियमित करते हैं।

यदि ध्यान आपकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है तो यह आपके दिन का सबसे बढ़िया समय बन जाता है। आपको इससे आनंद की प्राप्ति होती है। फिर आप इसे पांच से दस मिनट तक बढ़ा सकते हैं। पांच से दस मिनट का ध्यान आपके मस्तिष्क में शुरुआत में तो बीज रूप से रहता है, लेकिन 3 से 4 महिने बाद यह वृक्ष का आकार लेने लगता है और फिर उसके परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।


ध्यान के चमत्कारिक अनुभव

ध्यान के अनुभव निराले हैं। जब मन मरता है तो वह खुद को बचाने के लिए पूरे प्रयास करता है। जब विचार बंद होने लगते हैं तो मस्तिष्क ढेर सारे विचारों को प्रस्तुत करने लगता है। जो लोग ध्यान के साथ सतत ईमानदारी से रहते हैं वह मन और मस्तिष्क के बहकावे में नहीं आते हैं, लेकिन जो बहकावे में आ जाते हैं वह कभी ध्यानी नहीं बन सकते।

प्रत्येक ध्यानी को ध्यान के अलग-अलग अनुभव होते हैं। यह उसकी शारीरिक रचना और मानसिक बनावट पर निर्भर करता है कि उसे शुरुआत में क‍िस तरह के अनुभव होंगे। लेकिन ध्यान के एक निश्चित स्तर पर जाने के बाद सभी के अनुभव लगभग समान होने लगते हैं।

शुरुआती अनुभव : शुरुआत में ध्यान करने वालों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है।

यह गोलाकार में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृष्य जगत का रिफ्‍लेक्शन भी हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता रहता है।

कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग जीवात्मा का प्रकाश है। इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण भी माना जाता है।

इसका लाभ : कुछ दिनों बाद इसका पहला लाभ यह मिलता है कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क से तनाव और चिंता हट जाती है और वह शांति का अनुभव करता है। इसके साथ ही मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे वह असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेता है। ऐसा व्यक्ति भूत और भविष्य की कल्पनाओं में नहीं जिता।

दूसरा लाभ यह कि लगातार भृकुटी पर ध्यान लगाते रहने से कुछ माह बाद व्यक्ति को भूत, भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उसकी छटी इंद्री जाग्रत होने लगी है और अब उसे ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। यदि आगे प्रगति करना है तो ऐसे व्यक्ति को लोगो से अपने संपर्क समाप्त करने की हिदायत दी जाती है, लेकिन जो व्यक्ति इसका दुरुपयोग करता है उसे योगभ्रष्ट कहा जाता है।

ध्यान करना अद्भुत है। हमारे यूं तो मूलत: तीन शरीर होते हैं। भौतिक, सूक्ष्म और कारण, लेकिन इस शरीर के अलावा और भी शरीर होते हैं। हमारे शरीर में मुख्यत: सात चक्र हैं। प्रत्येक चक्र से जुड़ा हुआ है एक शरीर। बहुत अद्भुत और आश्चर्यजनक है हमारे शरीर की रचना। दिखाई देने वाला भौतिक शरीर सिर्फ खून, हड्डी और मांस का जोड़ ही नहीं है इसे चलायमान रखने वाले शरीर अलग हैं। कुंडलिनी जागरण में इसका अनुभव होता है।

जो व्यक्ति सतत चार से छह माह तक ध्यान करता रहा है उसे कई बार एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है। अर्थात एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए 2 अन्य शरीर। ऐसे में बहुत से ध्यानी घबरा जाते हैं और वह सोचते हैं कि यह ना जाने क्या है। उन्हें लगता है कि कहीं मेरी मृत्यु न हो जाए। इस अनुभव से घबराकर वे ध्यान करना छोड़ देते हैं। जब एक बार ध्यान छूटता है तो फिर मुश्किल होती है पुन: उसी अवस्था में लौटने में।

इस अनुभव को समझे- जो दिखाई दे रहा है वह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा सूक्ष्म शरीर हमें दिखाई नहीं देता, लेकिन हम उसे नींद में महसूस कर सकते हैं। इसे ही वेद में मनोमय शरीर कहा है। तीसरा शरीर हमारा कारण शरीर है जिसे विज्ञानमय शरीर कहते हैं।

सूक्ष्म शरीर की क्षमता : सूक्ष्म शरीर ने हमारे स्थूल शरीर को घेर रहा है। हमारे शरीर के चारों तरफ जो ऊर्जा का क्षेत्र है वही सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। इसके अलावा इस शरीर की और भी कई क्षमता है जैसे वह दीवार के पार देख सकता है। किसी के भी मन की बात जान सकता है। वह कहीं भी पल भर में जा सकता है। वह पूर्वाभास कर सकता है और अतीत की हर बात जान सकता है आदि।

कारण शरीर की क्षमता : तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है। कारण शरीर ने सूक्ष्म शरीर को घेर के रखा है। इसे बीज शरीर भी कहते हैं। इसमें शरीर और मन की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। यह हमारे विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर कुछ दिनों में ही नष्ट हो जाता और सूक्ष्म शरीर कुछ महिनों में विसरित होकर कारण की ऊर्जा में विलिन हो जाता है, लेकिन मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। कारण शरीर कभी नहीं मरता।

इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं। जब व्यक्ति निरंतर ध्यान करता है तो कुछ माह बाद यह कारण शरीर हरकत में आने लगता है। अर्थात व्यक्ति की चेतना कारण में स्थित होने लगती है। ध्यान से इसकी शक्ति बढ़ती है। यदि व्यक्ति निडर और होशपूर्वक रहकर निरंतर ध्यान करता रहे तो निश्चित ही वह मृत्यु के पार जा सकता है। मृत्यु के पार जाने का मतलब यह कि अब व्यक्ति ने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में रहना छोड़ दिया।

ध्यान का महत्व



अग्नि की तरह है ध्यान। बुराइयां उसमें जलकर भस्म हो जाती हैं। ध्यान है धर्म और योग की आत्मा। ध्यानियों की कोई मृत्यु नहीं होती। लेकिन ध्यान से जो अलग है बुढ़ापे में उसे वह सारे भय सताते हैं, जो मृत्यु के भय से उपजते हैं। अंत काल में उसे अपना जीवन नष्ट ही जान पड़ता है। इसलिए ध्यान करना जरूरी है। ध्‍यान से ही हम अपने मूल स्वरूप या कहें कि स्वयं को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात हम कहीं खो गए हैं। स्वयं को ढूंढने के लिए ध्यान ही एक मात्र विकल्प है।

दुनिया को ध्यान की जरूरत है चाहे वह किसी भी देश या धर्म का व्यक्ति हो। ध्यान से ही व्यक्ति की मानसिक संवरचना में बदलाव हो सकता है। ध्यान से ही हिंसा और मूढ़ता का खात्मा हो सकता है। ध्यान के अभ्यास से जागरूकता बढ़ती है जागरूकता से हमें हमारी और लोगों की बुद्धिहिनता का पता चलने लगता है। ध्यानी व्यक्ति चुप इसलिए रहता है कि वह लोगों के भीतर झांककर देख लेता है कि इसके भीतर क्या चल रहा है और यह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। ध्यानी व्यक्ति यंत्रवत जीना छोड़ देता है।

ध्यान अनावश्यक विचारों को मन से निकालकर शुद्ध और आवश्यक विचारों को मस्तिष्क में जगह देता है।

आत्मिक शक्ति का विकास : ध्यान तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है और उसे बल प्रदान करता है। ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती और मानसिक शांति की अनुभूति होती है। ध्यान का अभ्यास करते समय शुरू में 5 मिनट भी काफी होता है। अभ्यास से 20-30 मिनट तक ध्यान लगा सकते हैं।

मौन कर देता है ध्यान : ध्यान बहुत शांति प्रदान करता है। ध्यानस्थ होंगे, तो ज्यादा बात करने और जोर से बोलने का मन ही नहीं करेगा। जिनके भीतर व्यर्थ के विचार हैं वे ज्यादा बात करते हैं। वे प्रवचनकार भी बन जाते हैं। यदि गौर से देखा जाए तो वे जिंदगीभर वही वहीं बातें करते रहते हैं जो अतीत में करते रहे हैं। भटके हुए मन के लोग जिंदगी भर व्यर्थ की बकवास करते रहते हैं जैसे आपने टीवी चैनलों पर बहस होते देखी होगी। समस्याओं का समाधान बहस में नहीं ध्यानमें है।

Sunday, October 7, 2012

कहीं आपके घर में भी तो नहीं वास्तुदोष


    हम जिस स्थान पर रहते हैं, उसे वास्तु कहते हैं। इसलिए जिस जगह रहते हैं, उस मकान में कौन-सा दोष है, जिसके कारण हम दुख-तकलीफ उठाते हैं, इसे स्वयं नहीं जान सकते। हमें यह भी पता नहीं रहता कि उस घर में नकारात्मक ऊर्जा है या सकारात्मक।

किस स्थान पर क्या दोष है, लेकिन यहां पर कुछ सटीक वास्तु दोष निवारण के उपाय दिए जा रहे हैं, जिसके प्रयोग से हम आप सभी लाभान्वित होंगे।
ईशान अर्थात ई-ईश्वर, शान-स्थान। इस स्थान पर भगवान का मंदिर होना चाहिए एवं इस कोण में जल भी होना चाहिए। यदि इस दिशा में रसोई घर हो या गैस की टंकी रखी हो तो वास्तुदोष होगा।


अतः इसे तुरंत हटाकर पूजा स्थान बनाना चाहिए या फिर इस स्थान पर जल रखना चाहिए।
पूर्व दिशा में बाथरूम शुभ रहता है।

खाना बनाने वाला स्थान सदैव पूर्व अग्निकोण में होना चाहिए। भोजन करते वक्त दक्षिण में मुंह करके नहीं बैठना चाहिए।
शयन कक्ष
प्रमुख व्यक्तियों का शयन कक्ष नैऋत्य कोण में होना चाहिए। बच्चों को वायव्य कोण में रखना चाहिए।
शयनकक्ष में सोते समय सिर उत्तर में, पैर दक्षिण में कभी न करें।
अग्निकोण में सोने से पति-पत्नी में वैमनस्यता रहकर व्यर्थ धन व्यय होता है।
ईशान में सोने से बीमारी होती है।
पश्चिम दिशा की ओर पैर रखकर सोने से आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। उत्तर की ओर पैर रखकर सोने से धन की वृद्धि होती है एवं उम्र बढ़ती है।
बेडरूम में टेबल गोल होना चाहिए। बीम के नीचे व कालम के सामने नहीं सोना चाहिए। बच्चों के बेडरूम में कांच नहीं लगाना चाहिए। मिट्टी और धातु की वस्तुएं अधिक होना चाहिए। ट्यूबलाइट की जगह लैम्प होना चाहिए।
मुख्य प्रवेश द्वार
फेंगशुई के अनुसार घर का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व व अग्नि कोण के द्वार का रंग सदैव हरा या ब्ल्यू रखना चाहिए। दक्षिण दिशा के प्रवेश द्वार का रंग हरा, लाल, बैंगनी, केसरिया होना चाहिए। नैऋत्य और ईशान कोण का प्रवेश द्वार हरे रंग का या पीला केसरी या बैंगनी होना चाहिए। पश्चिम और वायव्य दिशा का प्रवेश द्वार सफेद या सुनहरा होना चाहिए। उत्तर दिशा का प्रवेश द्वार आसमानी सुनहरा या काला होना चाहिए।
धन-संपत्ति और आभूषण
- पूर्व दिशा : यहां घर की संपत्ति और तिजोरी रखना बहुत शुभ होता है और उसमें बढ़ोतरी होती रहती है।
- पश्चिम दिशा : यहां धन-संपत्ति और आभूषण रखे जाएं तो साधारण ही शुभता का लाभ मिलता है। परंतु घर का मुखिया अपने स्त्री-पुरुष मित्रों का सहयोग होने के बाद भी बड़ी कठिनाई के साथ धन कमा पाता है।
- उत्तर दिशा : घर की इस दिशा में कैश व आभूषण जिस अलमारी में रखते हैं, वह अलमारी भवन की उत्तर दिशा के कमरे में दक्षिण की दीवार से लगाकर रखना चाहिए। इस प्रकार रखने से अलमारी उत्तर दिशा की ओर खुलेगी, उसमें रखे गए पैसे और आभूषण में हमेशा वृद्धि होती रहेगी।
- दक्षिण दिशा : इस दिशा में धन, सोना, चाँदी और आभूषण रखने से नुकसान तो नहीं होता परंतु बढ़ोत्तरी भी विशेष नहीं होती है।
- ईशान कोण : यहां पैसा, धन और आभूषण रखे जाएं तो यह दर्शाता है कि घर का मुखिया बुद्धिमान है और यदि यह उत्तर ईशान में रखे हों तो घर की एक कन्या संतान और यदि पूर्व ईशान में रखे हों तो एक पुत्र संतान बहुत बुद्धिमान और प्रसिद्ध होता है।
- आग्नेय कोण : यहां धन रखने से धन घटता है, क्योंकि घर के मुखिया की आमदनी घर के खर्चे से कम होने के कारण कर्ज की स्थिति बनी रहती है।
- नैऋत्य कोण : यहां धन, महंगा सामान और आभूषण रखे जाएं तो वह टिकते जरूर है, किंतु एक बात अवश्य रहती है कि यह धन और सामान गलत ढंग से कमाया हुआ होता है।
- वायव्य कोण : यहां धन रखा हो तो खर्च जितनी आमदनी जुटा पाना मुश्किल होता है। ऐसे व्यक्ति का बजट हमेशा गड़बड़ाया रहता है और कर्जदारों से सताया जाता है।
- सीढ़ियों के नीचे तिजोरी रखना शुभ नहीं होता है। सीढ़ियों या टायलेट के सामने भी तिजोरी नहीं रखना चाहिए। तिजोरी वाले कमरे में कबाड़ या मकड़ी के जाले होने से नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है।
- घर की तिजोरी के पल्ले पर बैठी हुई लक्ष्मीजी की तस्वीर जिसमें दो हाथी सूंड उठाए नजर आते हैं, लगाना बड़ा शुभ होता है। तिजोरी वाले कमरे का रंग क्रीम या ऑफ व्हाइट रखना चाहिए।
किचन
- किचन हमेशा दक्षिण-पूर्व कोना जिसे अग्निकोण (आग्नेय) कहते है, में ही बनवाना चाहिए। यदि इस कोण में किचन बनाना संभव न हो तो उत्तर-पश्चिम कोण जिसे वायव्य कोण भी कहते हैं पर बनवा सकते हैं।
- किचन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा प्लेटफार्म हमेशा पूर्व में होना चाहिए और ईशान कोण में सिंक व अग्नि कोण चूल्हा लगाना चाहिए।
- किचन के दक्षिण में कभी भी कोई दरवाजा या खिड़की नहीं होने चाहिए। खिड़की पूर्व की ओर में ही रखें।
- रंग का चयन करते समय भी विशेष ध्यान रखें। महिलाओं की कुंडली के आधार पर रंग का चयन करना चाहिए।
- किचन में कभी भी ग्रेनाइट का फ्लोर या प्लेटफार्म नहीं बनवाना चाहिए और न ही मीरर जैसी कोई चीज होनी चाहिए, क्योंकि इससे विपरित प्रभाव पड़ता है और घर में कलह की स्थिति बढ़ती है।
- किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होना चाहिए।
- पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।
- किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ लगाना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।