Sunday, October 13, 2013

कुल्लू का दशहरा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण

कुल्लू के दशहरे से जुड़ी कहानियां

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। आश्विन महीने की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है।


कुल्लू का दशहरा पर्व, परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है। जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है।


कुल्लू में विजयदशमी के पर्व मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के समय से मानी जाती है।


यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है- जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की। उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी। कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित थे, अतः साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की सलाह दी।


उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया।


एक अन्य किंवदंती के अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है, तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है।


सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं। अतः यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है। परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है।

तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है। राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहां दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।

Wednesday, September 25, 2013

याद रखो- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है

* वीरता से आगे बढो़। एक दिन या एक साल में सिद्धि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ़ एवं स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा पालन करो। सत्य, मनुष्य जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो- व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं।

* सभी मरेंगे ही, यही संसार का नियम है। साधु हो या असाधु, धनी हो या दरिद्र सभी मरेंगे। चिरकाल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।

* मन और मुंह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसी को श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाए। सब विषयों में व्यावहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे। क्या तुमने नहीं सुने हैं कबीरदास के दोहे- 'हाथी चले बाजार में, कुत्ता भौंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निंदे संसार' ऐसे ही हमें भी निरंतर चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली-बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।

* प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो। पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो।

* मैं चाहता हूं कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्नत बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा। मैं कहता हूं- अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना। इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।

* जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूं एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकड़ों मित्र भेजेंगे।

* आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ इस त्रिविध बंधन से हम मुक्त हो जाएं और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।

* न टालो, न ढूंढों! भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेजें, उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है।

* बिना पाखंडी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएं क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही।

* धीरज रखो और मृत्युपर्यंत विश्वासपात्र रहो। आपस में न लडो! रुपए-पैसे के व्यवहार में शुध्द भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हे सफलता मिलेगी।

Monday, September 16, 2013

ओणम पर्व पर सजेंगी रंगोलियां

केरल का खास पर्व ओणम
ओणम मलयाली कैलेण्डर कोलावर्षम के पहले महीने छिंगम यानी अगस्त-सितंबर के बीच मनाने की परंपरा चली आ रही है। ओणम के पहले दिन को अथम कहते हैं। इस दिन से ही घर-घर में ओणम की तैयारियां प्रारंभ हो चुकी हैं।


घर-घर में कहीं फूलों से बनी रंगोली, तो कहीं नारियल के दूध में बनी खीर। इतना ही नहीं गीत-संगीत और खेलकूद के उत्साह से भरा माहौल। यह सब कुछ हो रहा है मलयाली समाज में। जहां महान राजा बलि के घर आने की खुशी में ओणम पर्व मनाया जा रहा है। ओणम के दिन हम सभी महिलाएं अपने पारंपरिक अंदाज में ही तैयार होती हैं।
जिस प्रकार ओणम में नए कपड़ों की घरों की साज-सज्जा का महत्व है, उसी प्रकार ओणम में कुछ पारंपरिक रीति-रिवाज भी हैं जिनका प्राचीनकाल से आज तक निरंतर पालन किया जा रहा है। जैसे अथम से ही घरों में फूलों की रंगोली बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। महिलाएं तैयार होकर फूलों की रंगोली जिसे ओणमपुक्कलम कहते हैं, बनाती हैं।


ओणमपुक्कलम विशेष रूप से थिरुओनम के दिन राजा बलि के स्वागत के लिए बनाने की परंपरा है।


फूलों की रंगोली को दीये की रोशनी के साथ सजाया जाता है। जिसे त्रिकाककरयप्पउ कहते हैं। इसके साथ इसके साथ ही ओणम में आऊप्रथमन यानी की खीर भी विशेष है।


ओणम के दिन खास तौर पर नारियल के दूध व गुड़ से पायसम और चावल के आटे को भाप में पकाकर और कई प्रकार की सब्जियां मिलाकर अवियल और केले का हलवा, नारियल की चटनी के साथ चौसठ प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं।


पारंपरिक भोज को ओनसद्या कहा जाता है, सद्या को केले के पत्ते पर परोसना शुभ होता है। इसके साथ ही ओणम में केरल के पारंपरिक लोकनृत्य जैसे- शेर नृत्य, कुचीपुड़ी, गजनृत्य, कुमट्टी कली, पुलीकली, कथकली आदि प्रमुख हैं।

इस दस दिनी उत्सव का समापन अंतिम दिन थिरुओनम को होगा। मान्यता है कि थिरुओनम के दिन ही राजा बलि अपनी प्रजा से मिलने के लिए आते हैं।

Thursday, August 29, 2013

स्वस्तिक

॥ ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा।
स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु॥

अर्थात : महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।

स्वस्तिक का आविष्कार आर्यों ने किया और पूरे विश्‍व में यह फैल गया। आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया गया है। कुछ धर्म, संगठन और समाज ने स्वस्तिक को गलत अर्थ में लेकर उसका गलत जगहों पर इस्तेमाल किया है तो कुछ ने उसके सकारात्मक पहलू को समझा।

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है।

स्वस्तिक शब्द को 'सु' एवं 'अस्ति' का मिश्रण योग माना जाता है। 'सु' का अर्थ है शुभ और 'अस्ति' का अर्थ है- होना। अर्थात 'शुभ हो', 'कल्याण हो'। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण।

हिंदू धर्म में स्वस्तिक को शक्ति, सौभाग्य, समृद्धि और मंगल का प्रतीक माना जाता है। हर मंगल कार्य में इसको बनाया जाता है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गणेश की शक्ति का स्थान 'गं' बीजमंत्र होता है। इसमें जो चार बिंदियां होती हैं, उनमें गौरी, पृथ्वी, कच्छप और अनंत देवताओं का वास होता है।

इस मंगल-प्रतीक का गणेश की उपासना, धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ, बही-खाते की पूजा की परंपरा आदि में विशेष स्थान है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है। यह चारों दिशाओं और जीवन चक्र का भी प्रतीक है।

घर के वास्तु को ठीक करने के लिए स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है। स्वस्तिक के चिह्न को भाग्यवर्धक वस्तुओं में गिना जाता है। स्वस्तिक के प्रयोग से घर की नकारात्मक ऊर्जा बाहर चली जाती है।
जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर और उनके चिह्न में स्वस्तिक को शामिल किया गया है। तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है।

जैन धर्म के प्रतीक चिह्न में स्वस्तिक को प्रमुखता से शामिल किया गया है। स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है।

यहूदी और ईसाई धर्म में भी स्वस्तिक का महत्व है। ईसाई धर्म में स्वस्तिक क्रॉस के रूप में चिह्नित है। एक ओर जहां ईसा मसीह को सूली यानी स्वस्तिक के साथ दिखाया जाता है तो दूसरी ओर यह ईसाई कब्रों पर लगाया जाता है। स्वस्तिक को ईसाई धर्म में कुछ लोग पुनर्जन्म का प्रतीक मानते हैं।
प्राचीन यूरोप में सेल्ट नामक एक सभ्यता थी, जो जर्मनी से इंग्लैंड तक फैली थी। वे स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानते थे। उनके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसमों का भी प्रतीक था। बाद में यह चक्र या स्वस्तिक ईसाइयत ने अपनाया। ईसाइयत में स्वस्तिक पुनर्जन्म का प्रतीक भी माना गया है।

मिस्र और अमेरिका में स्वस्तिक का काफी प्रचलन रहा है। इन दोनों जगहों के लोग पिरामिड को पुनर्जन्म से जोड़कर देखा करते थे। प्राचीन मिस्र में ओसिरिस को पुनर्जन्म का देवता माना जाता था और हमेशा उसे चार हाथ वाले तारे के रूप में बताने के साथ ही पिरामिड को सूली लिखकर दर्शाते थे।

इस तरह हम देखते हैं कि स्वस्तिक का प्रचलन प्राचीनकाल से ही हर देश की सभ्यताओं में प्रचलित रहा है। स्वस्तिक को किसी एक धर्म का नहीं मानकर इसे प्राचीन मानवों की बेहतरीन खोज में से एक माना जाना चाहिए।

Friday, August 16, 2013

अपने स्वभाव को बनाएं प्रकृति के अनुकूल



किसी मनुष्य को जो होना चाहिए और वह जो है, उसके बीच में सदा फर्क रहा है। मनुष्य 'जैसा है' को 'जैसा होना चाहिए' के नजदीक लाने का जो प्रयास करता है वही उसका आध्यात्मिक विकास है।

अतः पहला सवाल यह है कि मनुष्य को कैसा होना चाहिए? इसके साथ जुड़ा सवाल यह है कि धरती पर मनुष्य के जीवन का मूल उद्देश्य क्या है? इस उद्देश्य के अनुरूप ही मनुष्य का जीवन होना चाहिए।

पृथ्वी पर लाखों किस्म के जीव हैं। जीवन लाखों रूप में धरती पर प्रकट हुआ है। पर इन लाखों जीवन रूपों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो नियोजित ढंग से अन्य जीवों की रक्षा के उपाय करने में सक्षम है। इस क्षमता से ही मनुष्य का धरती पर मूल लक्ष्य निर्धारित होता है।

मनुष्य का मूल उद्देश्य सभी मनुष्यों सहित अन्य सभी जीवों की रक्षा करना है व दुख-दर्द कम करना है। इस तरह मनुष्य की मूल भूमिका रक्षक की है। आज की ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों के जीवन की रक्षा के बारे में उसे सोचना है और उसमें यह सामर्थ्य भी है, यह योग्यता भी है। अतः मनुष्य को मूलतः एक रक्षक का जीवन जीना चाहिए। क्या ही अच्छा होता यदि इस भूमिका के अनुकूल स्वभाव प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्यों को मिल जाता है। यदि ऐसा होता तो सभी मनुष्य रक्षक की भूमिका निभाते और एक दूसरे के दुख-दर्द के सच्चे हितैषी होते।

इस स्थिति में पृथ्वी पर सभी जीवों को पनपने का भरपूर अवसर मिलता। पर्यावरण की पूरी रक्षा होती व भावी पीढ़ियों के मनुष्यों और अन्य जीवों की जरूरतों का भी पूरा ध्यान रखा जाता। पर अफसोस कि मनुष्य को उसके अनुकूल स्वभाव प्राकृतिक रूप से नहीं मिलता है। यह उसे धीरे-धीरे विकसित करना पड़ता है। अतः अपने जीवन को मनुष्य के मूल उद्देश्य के नजदीक ले जाने का प्रयास करते रहना ही आध्यात्मिक विकास है।

चाहे यह सफर धीरे-धीरे ही तय हो, चाहे भटकाव के मौके भी आए, चाहे सफलता कम मिले, पर जब तक कोई व्यक्ति सच्ची भावना से मनुष्य के वास्तविक लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है तो वह आध्यात्मिक विकास पर अग्रसर है।

मनुष्य को अपनी जरूरतों के अनुकूल विश्व से ग्रहण करना चाहिए व इससे आगे कोई लालसा नहीं करना चाहिए। यही सादगी का जीवन है। इस सादगी को अपनाए बिना मनुष्य रक्षक की भूमिका नहीं निभा सकता है।

जब तक उसकी लालसा अपने लिए निरंतर अधिक प्राप्त करने की बनी रहती है, तब तक वह अन्य मनुष्यों व अन्य जीवों का हितैषी नहीं बन सकता क्योंकि वह उसके हिस्सा भी छीनना चाहता है। पर जैसे ही वह सादगी अपनाकर अपनी आवश्यकताओं को समेट लेता है, वैसे ही उसके लिए रक्षक की मूल भूमिका निभाना संभव हो जाता है। इस प्रकार यह प्रयास ही आध्यात्मिक विकास है।

Thursday, July 18, 2013

वैदिक प्रश्नोत्तरी


स्वामी जी इस सृष्टि का स्वामी एवं नियंता कौन है? इस सृष्टि में प्रथम कौन आया?
इस सृष्टि का स्वामी एवं नियंता स्वयं सर्वशक्तिमान निराकार, सर्वव्यापक ईश्वर है जो सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता है। सृष्टि रचना नित्य एवं शाश्वत है। जीवात्मा का स्वरूप भी नित्य एवं शाश्वत है तथा जीवात्माएं अपने द्वारा किए हुए शुभ एवं अशुभ कर्मों के आधार पर ही शरीर धारण करती हैं। इसके अतिरिक्त जड़-प्रकृति, जिसके द्वारा संपूर्ण जड़ ब्रह्मांड की रचना होती है, वह भी नित्य एवं शाश्वत है। अतः चेतन ईश्वर, चेतन जीवात्माएं एवं जड़ प्रकृति, ये नित्य एवं शाश्वत तीन विषय हैं, जिनके बारे में वेदों में वर्णन किया गया है। यही वेदों में कहा त्रैतवाद है। अतः इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि प्रथम कौन आया, क्योंकि सृष्टि रचना का न कोई आदि है और न कोई अंत। पृथवी बनती है, नष्ट होती है और पुनः बन जाती है।

भगवद् गीता किस की रचना है?
श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत ग्रंथ के भीष्म पर्व के 18 अध्याय हैं जो व्यासमुनि द्वारा रचित हैं। मैं आपको सलाह देता हूं कि आप ईश्वर कृपा से मेरे द्वारा रचित ‘श्रीमद्भगवद् गीता – एक वैदिक रहस्य’ का अध्ययन करें।

वेद एवं ईश्वर के ज्ञाता ब्राह्मण को दान क्यों दिया जाता है?
यजुर्वेद मंत्र 31/11 के अनुसार वेद एवं ईश्वर के ज्ञाता को ब्राह्मण कहते हैं और धर्म स्थापना के लिए इन्हें दान दिया जाता है। नट-नर्तकों को यश के लिए, सेवकों को भरण-पोषण और राजाओं को भय के कारण दान दिया जाता है।

ज्ञान किसे कहते हैं?
वेद ही ज्ञान है। वेदाध्ययन, वेदानुसार शुभ-कर्म एवं योग-साधन द्वारा परमात्म तत्त्व का यथार्थ बोध ही ज्ञान है।

शम क्या कहलाता है?
चित्त की शांति ही शम है।

मनुष्य का दुर्जय शत्रु कौन सा है?
क्रोध मनुष्य का दुर्जय शत्रु है।

अनंत व्याधि (अनंत दुख) क्या है?
लोभ अनंत व्याधि है?

मोह किसे कहते हैं?
धर्म मूढ़ता (कर्त्तव्य पालन न करना) ही मोह है।

स्वामी जी वेद किसने लिखे हैं?
वेद ऋषि, मुनि, मनुष्य आदि किसी ने भी नहीं लिखे हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान। यजुर्वेद मंत्र 7/4 में स्पष्ट किया है कि यह ज्ञान पृथ्वी रचना के आरंभ में ईश्वर से निकलकर अमैथुनी सृष्टि के चार ऋषियों के हृदय में ईश्वर की सामर्थ्य से प्रकट होता है। हम मनुष्य हैं, हमें कागज, कलम आदि का सहारा चाहिए। ईश्वर सर्वशक्तिमान है, अतः उसे कागज, कलम, दवात अथवा आंख, नाक, हाथ आदि के सहारे की आवश्यकता नहीं है। इसलिए वेद का ज्ञान बिना बोले और बिना लिखें इन ऋषियों में प्रकट होता है।
वृद्ध कौन है?
मनु-स्मृति श्लोक 2/128 में कहा-चाहे कोई 100 वर्ष की आयु का भी हो परंतु जो विद्या विज्ञान से रहित है वह बालक है और जो विद्या विज्ञान का दाता है उस बालक को भी पिता के  समान मानना चाहिए। क्योंकि विद्वान जन अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं। ऋग्वेद मंत्र 5/43/15 में भी कहा है कि जो वेद और योग-विद्या के ज्ञान से शुद्ध बुद्धि प्राप्त करते हैं तथा सदा श्रेष्ठ शुभ कर्म ही करते हैं, उन्हें भी वृद्ध अथवा विद्वान कहते हैं।

Monday, June 17, 2013

।। मां गायत्री चालीसा ।।


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ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा जीवन ज्योति प्रचंड ॥
शांति कांति जागृत प्रगति रचना शक्ति अखंड ॥1॥
जगत जननी मंगल करनि गायत्री सुखधाम ।
प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम ॥ २॥
भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी ।
गायत्री नित कलिमल दहनी ॥॥
अक्षर चौबीस परम पुनीता ।
इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता ॥॥
शाश्वत सतोगुणी सत रूपा ।
सत्य सनातन सुधा अनूपा ॥॥
हंसारूढ श्वेतांबर धारी ।
स्वर्ण कांति शुचि गगन-बिहारी ॥॥
पुस्तक पुष्प कमंडलु माला ।
शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला ॥॥
ध्यान धरत पुलकित हित होई ।
सुख उपजत दुख दुर्मति खोई ॥॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया ।
निराकार की अद्भुत माया ॥॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई ।
तरै सकल संकट सों सोई ॥॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली ।
दिपै तुम्हारी ज्योति निराली ॥॥
तुम्हरी महिमा पार न पावैं ।
जो शारद शत मुख गुन गावैं ॥॥
चार वेद की मात पुनीता ।
तुम ब्रह्माणी गौरी सीता ॥॥
महामंत्र जितने जग माहीं ।
कोउ गायत्री सम नाहीं ॥॥
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै ।
आलस पाप अविद्या नासै ॥॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी ।
कालरात्रि वरदा कल्याणी ॥॥
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते ।
तुम सों पावें सुरता तेते ॥॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे ।
जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी ।
जय जय जय त्रिपदा भयहारी ॥॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना ।
तुम सम अधिक न जगमें आना ॥॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा ।
तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा ॥॥
जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई ।
पारस परसि कुधातु सुहाई ॥॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई ।
माता तुम सब ठौर समाई ॥॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्मांड घनेरे ।
सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे ॥॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता ।
पालक पोषक नाशक त्राता ॥॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी ।
तुम सन तरे पातकी भारी ॥॥
जापर कृपा तुम्हारी होई ।
तापर कृपा करें सब कोई ॥॥
मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें ।
रोगी रोग रहित हो जावें ॥॥
दरिद्र मिटै कटै सब पीरा ।
नाशै दुख हरै भव भीरा ॥॥
गृह क्लेश चित चिंता भारी ।
नासै गायत्री भय हारी ॥॥
संतति हीन सुसंतति पावें ।
सुख संपति युत मोद मनावें ॥॥
भूत पिशाच सबै भय खावें ।
यम के दूत निकट नहिं आवें ॥॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई ।
अछत सुहाग सदा सुखदाई ॥॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी ।
विधवा रहें सत्य व्रत धारी ॥॥
जयति जयति जगदंब भवानी ।
तुम सम ओर दयालु न दानी ॥॥
जो सतगुरु सो दीक्षा पावे ।
सो साधन को सफल बनावे ॥॥
सुमिरन करे सुरूचि बडभागी ।
लहै मनोरथ गृही विरागी ॥॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता ।
सब समर्थ गायत्री माता ॥॥
ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी ।
आरत अर्थी चिंतित भोगी ॥॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें ।
सो सो मन वांछित फल पावें ॥॥
बल बुधि विद्या शील स्वभाउ ।
धन वैभव यश तेज उछाउ ॥॥
सकल बढें उपजें सुख नाना ।
जे यह पाठ करै धरि ध्याना ॥
यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोई ।
तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय ॥

Sunday, April 21, 2013

अगर सभी अपने घर के बाहर की सफाई करें तो सारी दुनिया साफ हो जाएगी


जर्मन साफ सुथरे माने जाते हैं। भले ही वह स्विस लोगों जितने साफ नहीं हों, लेकिन वह एकदम चकाचक देशों में शामिल है। पत्रकार पेटर सूडाइक इसे जर्मनों की दीवानगी बताते हैं।


दुनिया में आम तौर पर स्विटजरलैंड सबसे साफ देश माना जाता है। इसकी सड़कें इतनी साफ होती हैं कि आप उस पर खाना रख कर खा लें। अपने पेड़ों की हमेशा काट छाट करने वाले, पहाड़ियों की चोटी साफ करने वाले और घरों के बाहर झाड़ू बुहार करने वालों से जर्मन टक्कर लें तो कैसे? या हम ऐसा कह सकते हैं कि सफाई के मामले में स्विस लोग जर्मन लोगों का चरमपंथी संस्करण हैं। हमें अपनी उपलब्धियों को दूसरों की सफाई की छाया में छिपने देने की जरूरत नहीं।

मैं योहान वोल्फगांग गोएथे को अपने पहले सबूत के तौर पर पेश करता हूं। 'सभी अगर अपने घर के बाहर की सफाई करें तो सारी दुनिया साफ हो जाएगी।' और एक बार उन्होंने कहा था कि यह सिर्फ कहावत नहीं बल्कि जर्मन अस्मिता का मुख्य सच है।

एक ओर तो वह ये कहते हैं कि आप अपना कचरा खुद साफ करें और दूसरे के काम में दखल न दें। लेकिन दूसरी ओर शायद उन्होंने यह भी कहा हो सकता है कि जर्मनों को साफ सफाई करना पसंद है। जैसा कि जर्मनी के दर्शनशास्त्री ऑटो फ्रीडरिष बोलनाऊ ने कहा था, 'जब व्यापारियों ने अपनी दुकान खोल ली हो, जब घर की औरतों ने घर को एकदम चकाचक साफ कर दिया हो और घर के सामने की सड़क भी बुहार दी हो तब जा कर लोगों को चैन की सांस आती है।'

यही सोच जर्मनी के अधिकतर इलाकों में है और कुछ इलाकों में तो बहुत ही ज्यादा, जैसे कि स्वेबिया में। यहां साफ-सफाई के लिए एक हफ्ते का सिस्टम है, केहरवोखे। यह अपार्टमेंट में चलने वाला सिस्टम है जहां हर मकान वाले की सीढ़ियां, सेलर और बाहर के रास्ता साफ करने की एक-एक बार जिम्मेदारी आती है। सबको पता होता है कि किस हफ्ते किसकी बारी है और सब पूरी कोशिश करते हैं कि वो टाइमटेबल से चलें। अधिकतर यह आराम से चलता रहता है।

हालांकि...सिर्फ सड़कें ही नहीं चमकती बल्कि कपड़े भी एकदम साफ बेदाग होने चाहिए। जब मैं बड़ा हो रहा था तब भले ही मेरे मोजे रफू करने की स्थिति तक पहुंच जाएं उन्हें रोजाना धोया जाता था। मेरी मां की पूरी कोशिश होती कि भगवान न करे कि कभी मेरा एक्सीडेंट हो जाए और मुझे ऑपरेशन टेबल पर जाना पड़े तो मेरी अंडरवीयर गंदी न हो।

अब बीयर, इसे भी जर्मन शुद्धता कानून पर खरा उतरना बहुत जरूरी है। हमें सफाई अंकों में भी बहुत पसंद है। 13 वीं सदी के एक जर्मन कवि ने, जो स्वेबिया के थे, लिखा था, 'जहां भी सूरज की रोशनी पड़ती है, सूरज की रोशनी सब शुद्घ करती है। भले ही जो भी पादरी हो, सभा हमेशा शुद्ध होती है। सभा और सूरज की रोशनी हमेशा शुद्ध होती है।'

हम जर्मनों का विश्वास है कि जब मामला शुद्धता और सफाई का हो तो इसे सीखने की कोई उम्र नहीं होती। टॉयलेट से जुड़ी ट्रेनिंग जर्मन में राइनलिषकाइट्सएरजीहुंग कहलाती है, यानी साफ सफाई की शिक्षा। तो फिर अब तुरंत हाथ धोइए...

लेख: पेटर सूडाइक/आभा मोंढे 
संपादन: महेश झा

मुक्ति

अनन्त आवरणों में बन्धा हुआ जीव मुक्ति की कामना करे, छटपटाए यह तो समझ में आता है, किन्तु मुक्त व्यक्ति पहले स्वयं को बान्धे, बान्धता ही चला जाए और साथ-साथ मुक्ति की कामना करता रहे, यह समझ में नहीं आता। यह आज के मानव की तस्वीर है, जो यह सिद्ध कर रही है कि मानव-देह सृष्टि के लिए अति विशिष्ट योनि है। 

मानव की स्वतंत्र बुद्धि, शरीर की स्वतंत्रता और ज्ञान का अहंकार ही सृष्टि की अन्य योनियों के विकास एवं उनकी निरन्तरता के लिए उत्तरदायी है। वही अपने कर्म-फलों के अनुरूप विभिन्न योनियों को प्राप्त होता रहा है। अन्य योनियों को, जिसमें देवयोनि भी सम्मिलित हैं, भोग योनियां कहा है। वे अपना नया कर्म करने को स्वतंत्र नहीं हैं। यही मानव योनि की विशेषता है।

मानव देह भी कर्म-फल के रूप में ही प्राप्त होती है। इसमें व्यक्ति पुराने कर्मो के फल भी भोगता है और नए कर्म भी अर्जित करता है। विद्या और अविद्या ही कर्मो का आधार होता है। ज्ञान और कर्म के पर्याय हैं। जब जीवन की सारी गतिविधियां अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश के भीतर चलती हैं, तब उनको कर्म कहते हैं। 

जब इनका कार्य क्षेत्र मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश होता है, तब ज्ञान या विद्या के रूप में जाना जाता है। कर्म के साथ बन्धन का सीधा सम्बन्ध है और विद्या मुक्ति का मार्ग है। आत्मा के पास ये दो ही विकल्प हैं।

बन्धन के मूल में अहंकार रहता है। इसका केन्द्र अहंकृति है। इसी के अनुरूप प्रकृति होती है। प्रकृति का प्रतिबिम्ब आकृति होती है। जैसे-जैसे प्रकृति बदलती जाती है, वैसे-वैसे ही अगले जन्मों की आकृति तय होती जाती है। अन्त समय जब व्यक्ति देहातीत होकर समाधि ग्रहण करता है, तब सभी आकृतियों से मुक्त हो जाता है। कालातीत हो जाती है।

व्यक्ति का अहंकार अपने से कमजोर व्यक्ति के अधिकारों का हनन या अतिक्रमण करता रहता है। इसी क्रम में वह स्वयं को बन्धनों में जकड़ता ही चला जाता है। घर में एक नौकर रखकर हम सोचते हैं कि बहुत कुछ हल्के हो गए। होता बिल्कुल उल्टा है। हम स्वयं उससे बन्ध जाते हैं। हर पल उसके कार्यो पर ही आंखें टिकी रहती हैं। उसकी भाषा एवं उसके व्यवहार की चर्चा, उसके अज्ञान और अनाड़ीपन की चर्चा हमारे जीवन का बड़ा हिस्सा घेर लेती है। 

इतनी चर्चा न तो पति-पत्नी एक दूसरे की करते हैं। न ही बच्चों के बारे में एक-एक शब्द का आकलन होता है। बल्कि नौकर की चर्चा से स्वामी का अभिमान ही बढ़ता जाता है। उसकी/ उनकी भाषा में भी हल्कापन प्रवेश कर जाता है। नौकर नहीं हो तो स्वामी कैसा? अहंकार किसका? अज्ञान का आग्रह रहता है कि कर्म योग से बाहर रहना ही समृद्धि का प्रमाण-पत्र है।

अहंकार ही राग-द्वेष का सूत्रधार है। आसक्ति आंखों पर चढ़ी पट्टी है। खुली आंखों पर। जीवन के सारे सम्बन्ध ही बन्ध हैं। सम्+बन्ध। जन्म लिया है तो समाज के बन्ध भी रहेंगे। हालांकि, प्रकृति में कोई बन्ध नहीं है। हम अपने ही कर्म बन्धनों को प्रकृति का नाम दे देते हैं। जैसे कि शादियां तो स्वर्ग में ही तय हो जाती हंै। जैसे कि स्वर्ग हमको बान्धना चाहता हो।

या "शादी तो सात जन्म साथ रहने का मार्ग है।" साथ ही यह भी कहते हैं कि यह तो हमारा सातवां जन्म है। गले तक भर गए हैं, अब मुक्त होना चाहते हैं। ऎसा बन्धन आगे और नहीं चाहिए। सच पूछो तो यही मुक्ति द्वार है। इतनी विरक्ति हो जाना, कि पीछे मुड़कर देखने की इच्छा भी मर जाए, ग्रन्थि बंधन के खुलने की शुरूआत है। कितनी शक्ति लगाई होगी दोनों ने, दूर होने के लिए। कितने आरोप जड़े होंगे, कितना अविश्वास जताया होगा, अपने बन्धन में! कुछ तानों की नित्य बौछार भी साथ बनी रहती है, ताकि स्मृतियां भी उसको लौटा न लाएं। ये कैसा मुक्ति बोध! 

बन्धन तो इच्छा का नाम है। मुक्त हो पाना कैसे संभव है। इच्छा के साथ ही मन पैदा हो जाता है। मन के होते ही विद्या-अविद्या के मार्ग सामने आ जाते हैं। हर सम्बन्ध को सामने देखकर कोई न कोई कामना-भावना मन में उठने लगती है। इस बन्धन से मुक्ति, हर ऎसे बन्धन से मुक्ति, जिनको देखकर मन प्रसन्न होता है, उनके बन्धन से भी मुक्ति। 

हम जिन पर रौब मारते हैं, आदेश देकर जिनकी स्वतंत्रता छीनते हैं, उनसे भी मुक्ति। आखिर यहां भी हम स्वयं को उनका अधिकारी ही मानते हैं। कोई भी कामना जब धारणा बन जाती है, संकल्प बनकर जीवन का अंग बन जाती है, तब उससे मुक्त होना और भी कठिन हो जाता है। जिन-जिन सम्बन्धों के रूप में, प्रेम या घृणा में अपने मन की सिलाई कर ली जाए, संयोग-मिलन-बिछोह पर भीतर आन्दोलन होते रहे हैं, उनसे तो कैसी मुक्ति!

कितना दुलार करते हैं हम शरीर को। पूरी उम्र की मेहनत की कमाई खर्चते हैं, जिस शरीर के सुख और आराम के लिए, मौज-मस्ती के लिए, मनोरंजन और व्यसनों के लिए, जिसको स्वस्थ रखने के लिए, छोड़ दे उसका ख्याल? जो करता है प्रेम अनेक को और अनेक करते हों प्रेम जिसको, जिसका स्पर्श मात्र पैदा कर देता है स्पन्दन दिलों में, जिसके भीतर बैठा हूं मैं स्वयं और खो जाऊंगा उसके बाद, उससे मुक्ति का अर्थ? जिन श्वासों के सहारे मैं जिन्दा हूं, मेरा शरीर खड़ा है, मैं पृथ्वी और सूर्य से निरन्तर जुड़ा हुआ हूं, मेरे मन में कामना पैदा होती है, उनसे मुक्त होने की बात मन में उठ भी कैसे सकती है।

बन्धन ही निर्माण है। जोड़ना है। धन है-अमानत है-परिणाम है। इसी के लिए तो व्यक्ति जीता है। चिनाई को ही बन्ध कहते हैं। चाहें शरीर में पंच महाभूतों की हो, विचारों की हो अथवा भावना की। विचारों को छोड़ पाना तो बहुत ही कठिन है। व्यक्ति इन्हीं के सहारे आदान-प्रदान करता है, संवाद करता है, समाज में अपनी पहचान बनाता है। सबसे महžवपूर्ण बात यह है कि वह अपने अहंकार की तुष्टि करता है। जीवन के उपक्रम साध्य करता है।

विचारों के माध्यम से ही शब्द-ब्रह्म की प्रतिष्ठा होती है। उपासना और अनुष्ठान होते हैं। मंत्र शक्ति से जुड़ता है। अपने इष्ट की आराधना करता है। भावी सपने बुनता है। धर्म और अर्थ के क्षेत्र में मोक्ष की तलाश करता रहता है। तब इस के मानसिक स्वरूप से विच्छेद कर पाना साक्षात् मृत्यु ही है। वैसे तो चेतना के जागरण बिना भी जीवन तो मृत्यु ही है। चेतना का जागरण होता है संकल्प से, विद्या से। यही मुक्ति मार्ग का पहला सोपान है। यहीं से ऊध्र्व यात्रा शुरू होती है। 

विद्या के धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य से अविद्या, अस्मिता, आसक्ति, अभिनिवेश से मुक्ति मिलती है। शरीर की अनावश्यक क्रियाओं में ठहराव आता है। श्वास लयबद्ध होने लगती है। मन का बाहरी सम्बन्ध भी घटने लगता है। इन्द्रियां भीतर मुड़ने को तत्पर रहती हैं। इसका अर्थ यही है कि शरीर का मोह छूटने लगता है। सौन्दर्य और स्वास्थ्य से जुड़े प्रश्न गौण होने लगते हैं। तब श्वास भी स्वत: ही मन्द पड़ने लगती है। मुक्त होने का यह प्रथम प्रयास है। साथ ही यह भी निश्चित है कि जब तक प्रयास है, हम मुक्त नहीं है। मन शरीर एवं बुद्धि से बन्धा है। प्रयास रहित सहजता ही मुक्ति है। 

शरीर के साथ ही इससे जुडे सम्बन्धों का संयोग भी विदा होने लगता है। वास्तव में तो व्यक्ति अपना यात्रा पथ देखने लग जाता है। उसका भावी लक्ष्य मुखरित हो जाता है। अतीत भी स्पष्ट हो जाता है। तब एक संकल्प का उदय होता है अथवा पुराने को ही बार-बार दोहराया जाता है। एक-एक बन्धन को समझता जाता है। समझ लेना ही ग्रन्थि मोचन है। जैसे रस्सी में लगी गांठ। उसको समझते ही बन्धन खुल जाता है।

मुक्ति का मार्ग द्वन्द्व भरा है। अनेक कामनाएं बाधा बनती हैं। अधूरी और दबी हुई कामनाएं आमतौर पर विस्फोटक होती हैं। व्यसन-वासनाएं जोर से चिपके रहते हैं। मानो इनके हटने से चमड़ी ही उतर जाएगी। देवासुर संग्राम ही है। मन के प्रवाह पर अंकुश लगाना, कामनाओं से बाहर निकल जाना इन्द्र से युद्ध करना है। इसीलिए इन्द्रिय निग्रह महžवपूर्ण है। किन्तु एक बार मुक्ति की ठान ले तो यही इन्द्र व्यक्ति को सूर्य तक पहुंचा देता है।

गुलाब कोठारी
लेखक पत्रिका समूह के प्रधान संपादक हैं

Friday, April 19, 2013

हल्का भोजन लो और लंबा जीवन जियो


टोक्‍यो। दुनिया का सबसे उम्रदराज शुक्रवार को जापान में 116 वर्ष का हो गया। इस व्यक्ति और इसके आसपास की उम्र तक पहुंच चुके अन्य लोगों के इतने लंबे जीवन जीने का राज पता लगाने के लिए जापान में स्थानीय स्वास्थ्य प्रमुखों ने एक अध्ययन शुरू किया है। 

जिरोएमॉन किमूरा का जन्म 1897 में हुआ था। अपने इस ऐतिहासिक जन्मदिन को किमूरा के अपने परिवार और दोस्तों के साथ ही मनाने की संभावना है। इस अवसर पर देश के पश्चिम में स्थित उनके गृहनगर क्योतांगो शहर के महापौर के आने की भी संभावना है।

इस शहर की जनसंख्या (60 हजार) में किमूरा उन 95 लोगों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी के 100 या उससे ज्यादा वर्ष पूरे किए हैं।

एक स्थानीय अधिकारी ने बताया कि जीवन की शती मनाने वाले किमूरा धूम्रपान नहीं करते और वे भोजन तभी तक करते हैं, जब तक कि उनका पेट 80 प्रतिशत भर न जाए। एक स्थानीय रिपोर्ट में कहा गया है कि वे बहुत कम मात्रा में अल्‍कोहल लेते हैं। 

अधिकारी ने बताया कि किमूरा का सिद्धान्त है, 'हल्का भोजन लो और लंबा जीवन जियो'। अधिकारी ने बताया कि यह भी पता लगाया जाएगा कि जो लोग अधिक जीते है, क्या उसके लिए स्थानीय भोजन भी जिम्मेदार है। (भाषा)

Saturday, April 13, 2013

हैनरी फोर्ड

एक युवक ने जब हैनरी फोर्ड से कहा कि "मैं भी हेनरी फोर्ड के समान संपन्न बनना चाहता हूँ । कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए ।" हैनरी फोर्ड ने जो उत्तर दिया वह हर भौतिक महत्त्वाकांक्षी को प्रेरणा दे सकता है । फोर्ड ने उत्तर दिया, 'किसी भी कीमत पर अपनी प्रामाणिकता बनाए रखो, मनोयोग एवं सतत् श्रम का अवलंबन लेकर व्यवसाय क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हो ।’ एक सामान्य से ओटोमोबाइल मैकेनिक के रूप में फोर्ड ने अपने जीवन क्रम का आरंभ किया तथा पुरुषार्थ के सहारे सफलता की चोटी पर जा पहुँचे । फोर्ड को ओटोमोबाइल उद्योग का संस्थापक माना जाता है । मोटर कारखाना की स्थापना के समय उनकी इच्छा थी कि इतनी सस्ती कारों का निर्माण करें कि प्रत्येक कर्मचारी को उपलब्ध हो सके । सन् 1930 में फोर्ड कपंनी से निकलने वाली कार की कीमत मात्र 300 डालर थी । फोर्ड कपंनी के सामने हर समय 70,000 कारें खड़ी रहती थीं जो मात्र कंपनी में कार्य करने वाले कर्मचारियों की थीं, सन् 1937 में मृत्यु के समय हेनरी विश्व के सबसे संपन्न व्यक्ति माने गए । फोर्ड शांति के पक्षपाती थी । उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन की स्थापना द्वारा अपने करुण हृदय का परिचय दिया । खरबों डालर की राशि से स्थापित यह संस्था मानवतावादी कार्यों में लगी है ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य,
बड़े आदमी नहीं महामानव बनें, पृ. १२"

“Maintain your honesty at any cost and strive in the profession with hard-work and strongly positive attitude”.


Wednesday, March 6, 2013

अनुशासन

अनुशासन का सीधा अर्थ अपने दायरे में रहना है। हमारा जो फर्ज है, जो कर्तव्य है उसे ठीक समय पर पूरा करना और किसी दूसरे के कार्य में दखल न देना ही सही मायने में अनुशासन का पालन करना है। यदि हम अनुशासन का पालन करते हैं, तो हमारी मान-मर्यादा बनी रहती है। इसके विपरीत हम मनमानी पर उतर आएं, तो इसका बुरा नतीजा भुगतना पड़ता है। जीवन में सच्चे संकल्प और अनुशासन से इनसान किस तरह कामयाबी को अपनी मुट्ठी में बंद कर सकता है, इसके लिए अनगिनत मिसालें पेश की जा सकती हैं। महाभारत के प्रसिद्ध पात्र कर्ण का जीवन इस संबंध में सबके लिए अनुकरणीय हो सकता है। दानवीर कर्ण के बचपन का जीवन कितना संघर्ष भरा था, यह तो आप सब लोग जानते हैं। जन्म लेते ही समाज के विरोध का ख्याल कर माता ने नदी में बहा दिया और फिर एक निसंतान दंपति ने उनका पालन-पोषण किया। जन्म से कुलीन होने पर भी ऐसी विवशता रही कि उन्हें सूतपुत्र का विशेषण मिला और आचार्य द्रोण ने शिक्षा देने से इंनकार कर दिया। मगर संकल्प के धनी कर्ण ने अपनी सच्ची लगन और अनुशासन पालन से शास्त्र और शस्त्र विद्या अर्जित की। फिर इसी के बल पर कर्ण ने अपनी अलग पहचान बनाई। वैसे तो महाभारत के नायक के रूप में अर्जुन को जाना जाता है, मगर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कर्ण किसी भी रूप से अर्जुन से कम नहीं। यहां तक कि अर्जुन को श्रीकृष्ण जैसा सारथी न मिला होता तो उनकी विजय यात्रा कभी पूरी नहीं होती। कौरव दल में कर्ण ही एक केवल एकमात्र ऐसे महारथी थे जो अर्जुन को परास्त कर देने की काबिलियत रखते थे। लेकिन अधर्म और अन्याय के समर्थक दुर्योधन के पक्ष में अपना मित्र धर्म निभाने के लिए वह खड़े थे, इसलिए उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई। फिर इतना कुछ होने के बावजूद व्यक्तिगत रूप में कर्ण का चरित्र, उनकी भूमिका उन्हें सम्मान का पात्र बनाती है। यहां इस प्रसंग का जिक्र मैंने इसलिए किया है ताकि आप यह समझ सकें कि इंसान कि असली पहचान कुल, गोत्र,जाति नहीं, इसका कर्म और सच्चे संकल्प से कर्मक्षेत्र में लगातार जुटा रहता है उसे संसार हमेशा सम्मान देता है। उसकी कीर्ति पताका हमेशा लहराती रहती है।  यदि इस मामले में  मैं आज के दौर की बात करूं, तो जीवन के शुरूआती सफर में मेरी भी राम कहानी कुछ ऐसी रही कि यदि संकल्प और अनुशासन की  अहमियत नहीं समझता, तो आज कहीं का नहीं होता। देश के बंटवारे का वह वक्त आज भी मैं चाहकर भी नहीं भूल सकता।  संयम और सादगी की अहमियत को समझें, क्योंकि  इसी के सहारे चरित्र का निर्माण होता है।  खान—पान में संयम,व्यवहार में संयम,  इसका हमारे जीवन की खुशहाली तय करने  में बहुत ही  महत्व है। इसी तरह सादगी में जो सुख है,व्यर्थ के दिखावे से हासिल होने वाले क्षणिक सुख से उसकी तुलना भी नहीं  की जा सकती । सच तो यह है कि सादगी और संयम अपनाने से अपने आप हम अनुशासन करने लगते हैं। और फिर जीवन से  ख्वाब अधूरे नहीं रह पाते। दृढ़ संकल्प और अनुशासन के महत्व को समझने के लिए हमें प्राचीन महापुरुषों की  जीवनगाथाओं का भी मनन करना चाहिए।  जीवनगाथाओं का मनन करने से हमारे मन को बल मिलता है, बुरी आदतें उसे अपना गुलाम नहीं बना पातीं और  अपने संकल्प को  सपनों को पूरा करने के लिए हर हाल में तत्पर रहते हैं। हमें अपने समाज में  भी वैसी हस्तियों से सबक लेना चाहिए, जिन्होंने सच्चाई, ईमानदारी, अनुशासन, परोपकार आदि के बल पर अगली कतार  में बैठने की काबिलियत हासिल की, समाज में अपना नाम रोशन किया।  क्रोध से हमेशा दूरी बनाए रखें, मन को शांत रखें, क्योंकि क्रोध में मन बेकाबू हो जाता है और हम गलत कदम उठा बैठते हैं। पल भर का क्रोध आपका भविष्य बिगाड़ सकता है। यदि कभी क्रोध आए तो  उस समय कोई निर्णय न लें, बल्कि मौन धारण कर लें, शांत हो जाएं। फिर जब मन पूरी तरह शांत हो जाए, तो इस बात का विचार करें कि आपका क्रोध कितना अनर्थ कर सकता था। अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए पूरे दिन का वक्त के हिसाब से  एक प्रोग्राम तय करें। काम का, आराम का,घूमने का, सोने का  पूजा पाठ का  मगर घबराएं नहीं ,सख्ती से खुद पर लागू करें।

काल और कर्म का संयोग है जीवन



आदिशक्ति की लीलाकथा की कडि़यां कर्म के रहस्य का बोध कराती हैं। जीवन की सही पहचान परिचय व परिभाषा इन्हीं दो शब्दों में निहित है- काल व कर्म। हम सबकों जो जीवन मिला है, वह काल का सुनिश्चित खंड है। इसी कालखंड में हमें कर्म करने व भोगने हैं। काल का जो वर्तमान खंड है, उसमें हम अपने मनचाहे कर्म कर सकते हैं। इस अवधि में हम जो भी कर्म करते हैं वे केवल वर्तमान तक सीमित नहीं रहते हैं। इनका प्रभाव हमारे भूतकाल मे हो चुके कर्मों पर पड़ता हैं और भविष्यकाल के कर्मों पर भी। यदि भूतकाल में पुराने अतीत मे हमसे कुछ गलतियां बन पड़ी हैं, कुछ अपराध हो चुके हैं तो वर्तमान के शुभ कर्मों से उनका परिमार्जन, पक्षालन व प्रायश्चित किया जा सकता है। इतना ही नहीं वर्तमान के ये शुभ कर्म हमारे समुज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने में भी समर्थ हैं।


जो जीवन के इस सच से सुपरिचित हैं, वे अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हैं और प्रतिक्षण प्रतिपल शुभ कर्मों के संपादन में संलग्न रहते हैं। वे जानते हैं कि जीवन वासना, तृष्णा व अहंता की पूर्ति का साधन नहीं है, बल्कि यह शुभ कर्मों को करने का एक माध्यम हैं। इसके विपरीत जो इस सच से अपरिचित हैं, वे भिन्न-भिन्न भ्रांतियों में भटकते-बहकते रहते हैं। कभी उन्हें मोह बांधता है, तो कभी वासना खींचती है और कभी ऐसे लोग अहंता के उन्माद में अकरणीय करते रहते हैं। कर्म अपने वर्तमानकाल में बहुत कुछ मनचाहा कर सकते हैं, परंतु उचित समय पर जब ये कर्म काल के गर्भ में परिपक्व हो जाते हैं तो इनके परिणाम को भोगने के लिए हमें विवश होना पड़ता है। इसलिए जो जीवन के सच को, इसके मर्म को समझते हैं वे जानते हैं कि जीवन न तो केवल काल है और न ही केवल कर्म। यह तो इन दोनों का सुखद संयोग है, जो सदा शुभ कर्म करते हैं। उनके लिए काल का प्रत्येक क्षण सर्वदा श्ुभ होता है, परंतु जो भ्रांति, भटकन, लालसा या फिर उन्माद में अशुभ कर्म करने लगते हैं उनके लिए काल का प्रत्येक क्षण अशुभ ही होता है। इसलिए अशुभ कर्म, अशुभ भाव एवं अशुभ विचार से जितना बचा जाए, उतना ही अच्छा है। आदिशक्ति जगन्माता काल व कर्म की नियंता होने के कारण महाकाली कहलाती है। वही जब शुभ कर्मों का सत्परिणाम देती हैं तो महालक्ष्मी कही जाती हैं। भ्रांतियों भटकन को दूर भगाते समय वही महासरस्वती का स्वरूप धारण करती हैं। लेकिन जो अशुभ कर्मों की डगर पर चल पड़ता है, उसके लिए आदिशक्ति से महाकाली स्वरूप में विनाश प्रकट हो जाता है। महालक्ष्मी बन कर समृद्धि देने के बजाय जेष्ठा बनकर संपूर्ण समृद्धि का हरण कर लेती हैं। यही नहीं वह अशुभ परिणाम देने कोआप संस्थिता हो जाती हैं। जीवन में जब भी ऐसा समय आता है तो वह बड़ा कष्टकारक व विषम होता है। ऐसे कष्टकारी, क्लेशकारी समय का एक ही समाधान है, भगवती के श्री चरणों में शरणागति। इस शरणागति के पथ को जो सुझाता है, बताता है वही महर्षि मेधा की भांति सच्चा सदगुरु हो जाता है।

ईश्वर की प्रार्थना

असली प्रार्थना वह है जो तुम्हें बदलती है। प्रार्थना करने में तुम बदलते हो। तुम्हारी प्रार्थना ही अगर तुम्हारे हृदय तक पहुंच जाए, सुन लो तुम तो रूपांतरण हो जाता है….

प्रार्थना का प्रयोजन ही प्रभु तक पहुंचने में नहीं है। प्रार्थना तुम्हारे हृदय का भाव है। फूल खिले सुगंध किसी के नासापुटों तक पहुंचती है, यह बात प्रयोजन की नहीं है। प्रार्थना तुम्हारी फूल की गंध की तरह होनी चाहिए। तुमने निवेदन कर दिया, तुम्हारा आनंद निवेदन करने में ही होना चाहिए। इससे ज्यादा का मतलब है कि कुछ मांग छिपी हुई है भीतर। तुम कुछ मांग रहे हो। जब तुमने मांगा, प्रार्थना को मार डाला, गला घोंट दिया, प्रार्थना तो प्रार्थना ही तभी है, जब उसमें कोई वासना नहीं है। वासना से मुक्त होने के कारण ही प्रार्थना है। वही तो उसकी पावनता है। तुमने अगर प्रार्थना में कुछ वासना रखी, कुछ भी परमात्मा को पाने की ही सही तो तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं है। अंहकार के तो बोल ही नहीं। प्रार्थना आनंद है। कोयल ने कुहू-कुहू का गीत गाया, मोर नाचा, नदी का कलकल नाद है,फूलों की गंध है, सूरज की किरणें हैं, कहीं कोई प्रयोजन नहीं है,आनंद की अभिव्यक्ति है,ऐसी तुम्हारी प्रार्थना हो। तुम्हें इतना दिया है परमात्मा ने, प्रार्थना तुम्हारा धन्यवाद होना चाहिए-तुम्हारी कृतज्ञता। लेकिन प्रार्थना तुम्हारी मांग होती है। तुम यह नहीं कहने जाते मंदिर कि हे प्रभु , इतना तूने दिया, धन्यवाद! कि मैं अपात्र, और मुझे इतना भर दिया! मेरी कोई योग्यता नहीं, और तू औघड़दानी और तूने इतना दिया। मैंने कुछ भी अर्जित नहीं किया, और तू दिए चला जाता है, तेरे दान का अंत नहीं है। धन्यवाद देने जब तुम मंदिर जाते हो तब प्रार्थना। पहुंची या नहीं पहुंची यह सवाल नहीं है। तुमने कुछ मांगा, तो उसका अर्थ हुआ कि तुम परमात्मा को बदलने गए। उसका इरादा मेरे अनुसार चलना चाहिए। यह प्रार्थना हुई? तुम परमात्मा को अपने से ज्यादा समझदार समझ रहे हो? तुम सलाह दे रहे हो? यह अपमान हुआ। यह नास्तिकता है, आस्तिकता नहीं है। आस्तिक तो कहता है तेरी मर्जी ही ठीक है। मेरी मर्जी सुनना ही मत। क्योंकि मेरी सुनी तो भूल हो जाएगी। तू जो करे वो ठीक है। ठीक की और कोई परिभाषा नहीं है। प्रार्थना तुम्हारा सहज आनंदभाव । प्रार्थना साधन नहीं ,साध्य। प्रार्थना अपने में पर्याप्त,अपने में पूरी, परिपूर्ण। नाचो, गाओ, आह्लाद प्रकट करो, उत्सव मनाओ। बस वही आनंद है। वही आनंद तुम्हें रूपांतरित करेगा। वही आनंद रसायन है। उसी आनंद में लिप्त होते-होते तुम पाओगे-अरे परमात्मा तक पहुंचे या नहीं, इससे क्या प्रयोजन है? मैं बदल गया! मैं नया हो आया! प्रार्थना स्नान है आत्मा का। उससे तुम शुद्ध होओगे, तुम निखरोगे। और एक दिन तुम पाओगे कि प्रार्थना निखरती गई, एक दिन अचानक चौंक कर पाओगे कि तुम ही परमात्मा हो। जब तक यह जान न लिया जाए कि मैं परमात्मा हूं तब तक कुछ भी नहीं जाना-या जो जाना सब आसार है।