Sunday, October 13, 2013

कुल्लू का दशहरा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण

कुल्लू के दशहरे से जुड़ी कहानियां

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। आश्विन महीने की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है।


कुल्लू का दशहरा पर्व, परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है। जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है।


कुल्लू में विजयदशमी के पर्व मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के समय से मानी जाती है।


यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है- जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की। उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी। कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित थे, अतः साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की सलाह दी।


उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया।


एक अन्य किंवदंती के अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है, तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है।


सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं। अतः यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है। परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है।

तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है। राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहां दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।